पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में जीविकोपार्जन की जटिलता, संघर्ष और रोजगार के समुचित अवसर न होने ने पलायन को बढ़ावा दिया है। यहां जीवन सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं, बल्कि रात को वो घना तिमिर है, जब प्रकृति की हरियाली भी सघन अंधेरे से ढक जाती है। ग्रामीण आबादी रोज़गार की तलाश और सुविधासंपन्न जीवन के लिए शहरों में जा रही है। खेत-खलिहान बंजर होते जा रहे हैं। गांवों के गांव खाली हो गए हैं।
विकास के सही रोडमैप के अभाव, नीति-नियंताओं और हुक्मरानों की निष्क्रियता, दूरदृष्टि और सही विजन की कमी ने जिस परिकल्पना से इस पहाड़ी राज्य का गठन हुआ था, उस पर बट्टा लगा दिया है। राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और लूट-खसोट का 'खुला खेल फर्रुखाबादी' नेताओं की नाक के नीचे फल-फूल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में परियोजनाओं के नाम पर सारा धन ग्राम प्रधान, वन पंचायत और पटवारी निगल रहे हैं। मिड-डे मील के नाम पर स्कूलों के लिए भेजा जाने वाला राशन अध्यापक और रसोइए के घरों में जा रहा है।
एक करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले उत्तराखंड में विकास की वाह्य कल्पना तो सफल है, लेकिन भीतर से खोखली है। पर्यटन स्थल और अति विशिष्ट शहर जगमग हैं, लेकिन सूदूर का पहाड़ी क्षेत्र अंधकार में डूबा हुआ है। सूबे के 13 में से 11 जिलों में पलायन हुआ है। शहरी इलाकों में तकरीबन 9 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में तकरीबन 19 फीसदी पलायन हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, गांवों में 69.7 फीसदी जनसंख्या रह गई है, जबकि 2001 में 74.8 फीसदी थी। अल्मोड़ा और पौड़ी गढ़वाल में -1.73 और -1.51 प्रतिशत की जनसंख्या वृद्धि हुई है।
युवा पीढ़ी पढ़ाई और रोजगार के लिए दूसरे शहरों में जाती है और वहीं की होकर रह जाती है। क्या वजह है कि बहुत ही कम युवा आज की तारीख में गांवों की तरफ रुख कर रहे हैं? जो कर भी रहे हैं, वो सिर्फ अपने हौसले और जज्बे के बल पर, न कि किसी सरकारी नीति और प्रोत्साहन के तहत। राज्य सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसके तहत यहां का युवा पहाड़ के विकास के लिए काम करे।
राज्य निर्माण के बाद बीजेपी और कांग्रेस, दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों की सरकारें आईं और गईं। पहाड़ी राज्य के विकास को लेकर विजन का अभाव बना ही रहा। 53 हजार से ज्यादा वर्ग किलोमीटर में फैले सूबे में महिला लिंगानुपात और महिला साक्षरता दर, दोनों कम है। 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों की 5.1 प्रतिशत आबादी घटी है। पहले कुल जनसंख्या का ज्यादातर अनुपात गांवों में रहता था, लेकिन पलायन की वजह से गांव के गांव खाली हो गए हैं। ग्रामीण आबादी शहरी क्षेत्र की तरफ सिमट रही है। सूबे की कुल आबादी ( 1,01,16,752 ) में से 5154178 पुरुष और 49, 62,574 महिलाएं हैं। साल 2001 से 2011 के बीच सूबे की जनसंख्या में 84.89 लाख की बढ़ोत्तरी हुई है।
महिला साक्षरता पुरुष साक्षरता की तुलना में 20.34 प्रतिशत कम है। राज्य में कुल साक्षरता दर 78.82 प्रतिशत है। पुरुष साक्षरता दर 87.40 और महिला साक्षरता दर 67.06 है। 2001 की जनगणना से तुलना करे तो सूबे में महिला लिंगानुपात में कमी आई है। जहां साल 2001 में महिला लिंगानुपाल हजार में से 964 था, वहीं साल 2001 में 963 है। यह साल 2011 की जनसंख्या के अनुसार 940 के राष्ट्रीय औसत से कम है।
अब बात करते हैं उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के द्वाराहट तहसील के पटास गांव की। जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, इस गांव की कुल जनसंख्या 121 है। यहां 27 परिवार है जिनमें 44 पुरुष और 77 महिलाएं शामिल हैं।
यहां की साक्षरता दर 77.66 प्रतिशत है। इनमें पुरुष साक्षरता दर 94 और महिला साक्षरता दर 68 प्रतिशत है। वास्तविकता के धरातल पर इस गांव की सूरत बेहद चौंकाने वाली है। पटास की 70-80 फीसदी आबादी पूर्णत: पलायन हो चुकी है। तल्ला और मल्ला पटास में विभक्त पहाड़ी के इधर-उधर बसे गांव की स्थिति बेहद देयनीय है। तल्ला पटास में 14-15 घरों में से ज़्यादातर पर ताले झड़े हुए हैं। गांव में पुरुषों की संख्या दो से ज़्यादा नहीं है। किसी भी अप्रिय घटना की स्थिति में सारे गांव की जिम्मेदारी इन्हीं के कंधों पर है।
पोस्टकार्ड यहां की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है। लड़का शहर से मनीऑडर के जरिए घर के लिए पैसा भेजता है। कृषि की स्थिति खस्ता है। ज़्यादातर खेत बंजर हो गए हैं, क्योंकि उनमें कमाने खाने वाला कोई नहीं है।
यह तो बस एक गांव की कहानी है। ऐसे ही कितने गांव यहां पूर्णत: पलायन की भेंट चढ़ गए हैं। संसाधनविहीन होने के पश्चात भी पटास की साक्षरता दर 77 है। यह इसके निकटतम गांव निरकोट और दौला से ज़्यादा है। पटास में अगर एक माचिस की जरूरत भी आन पड़ी तो आपको चार-पांच किलोमीटर की चढ़ाई पार करके लेनी होगी। दौला में 15 परिवारों की कुल जनसंख्या 92 है। इनमें महिलाओं की संख्या 57 और पुरुषों की संख्या 35 है। साक्षरता दर 42.62 प्रतिशत है। वहीं, निरकोट की कुल 60 परिवार निवास करते हैं। यहां की कुल आबादी 264 के करीब है। साक्षरतादर 72.17 प्रतिशत है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि पहाड़ को किस तरह के नेतृत्व की आवश्यता है? बीजेपी और कांग्रेस की लूट-खसोट से जनता पहले ही वाकिफ हो चुकी है। मुख्यमंत्री हरीश रावत का बड़े बांधों को खुला समर्थन और उमा भारती का यह बयान कि वह बड़े बांधों के विरोध में नहीं है, दोनों राजनीतिक दलों की दूरदृष्टि और जनता को अपने हक से बेदखल करने की साजिश साफ समझ आती है। पहाड़ी की जवानी और पानी दोनों उसके काम नहीं आता, यह बात सिर्फ एक हास्यास्पद जुमले के तौर पर कही जाने लगी है। इसके पीछे का मर्म पहाड़ की जटिलताओं से गुजरा व्यक्त ही समझता है।
ललित फुलारा
विकास के सही रोडमैप के अभाव, नीति-नियंताओं और हुक्मरानों की निष्क्रियता, दूरदृष्टि और सही विजन की कमी ने जिस परिकल्पना से इस पहाड़ी राज्य का गठन हुआ था, उस पर बट्टा लगा दिया है। राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और लूट-खसोट का 'खुला खेल फर्रुखाबादी' नेताओं की नाक के नीचे फल-फूल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में परियोजनाओं के नाम पर सारा धन ग्राम प्रधान, वन पंचायत और पटवारी निगल रहे हैं। मिड-डे मील के नाम पर स्कूलों के लिए भेजा जाने वाला राशन अध्यापक और रसोइए के घरों में जा रहा है।
एक करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले उत्तराखंड में विकास की वाह्य कल्पना तो सफल है, लेकिन भीतर से खोखली है। पर्यटन स्थल और अति विशिष्ट शहर जगमग हैं, लेकिन सूदूर का पहाड़ी क्षेत्र अंधकार में डूबा हुआ है। सूबे के 13 में से 11 जिलों में पलायन हुआ है। शहरी इलाकों में तकरीबन 9 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में तकरीबन 19 फीसदी पलायन हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, गांवों में 69.7 फीसदी जनसंख्या रह गई है, जबकि 2001 में 74.8 फीसदी थी। अल्मोड़ा और पौड़ी गढ़वाल में -1.73 और -1.51 प्रतिशत की जनसंख्या वृद्धि हुई है।
युवा पीढ़ी पढ़ाई और रोजगार के लिए दूसरे शहरों में जाती है और वहीं की होकर रह जाती है। क्या वजह है कि बहुत ही कम युवा आज की तारीख में गांवों की तरफ रुख कर रहे हैं? जो कर भी रहे हैं, वो सिर्फ अपने हौसले और जज्बे के बल पर, न कि किसी सरकारी नीति और प्रोत्साहन के तहत। राज्य सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसके तहत यहां का युवा पहाड़ के विकास के लिए काम करे।
राज्य निर्माण के बाद बीजेपी और कांग्रेस, दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों की सरकारें आईं और गईं। पहाड़ी राज्य के विकास को लेकर विजन का अभाव बना ही रहा। 53 हजार से ज्यादा वर्ग किलोमीटर में फैले सूबे में महिला लिंगानुपात और महिला साक्षरता दर, दोनों कम है। 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों की 5.1 प्रतिशत आबादी घटी है। पहले कुल जनसंख्या का ज्यादातर अनुपात गांवों में रहता था, लेकिन पलायन की वजह से गांव के गांव खाली हो गए हैं। ग्रामीण आबादी शहरी क्षेत्र की तरफ सिमट रही है। सूबे की कुल आबादी ( 1,01,16,752 ) में से 5154178 पुरुष और 49, 62,574 महिलाएं हैं। साल 2001 से 2011 के बीच सूबे की जनसंख्या में 84.89 लाख की बढ़ोत्तरी हुई है।
महिला साक्षरता पुरुष साक्षरता की तुलना में 20.34 प्रतिशत कम है। राज्य में कुल साक्षरता दर 78.82 प्रतिशत है। पुरुष साक्षरता दर 87.40 और महिला साक्षरता दर 67.06 है। 2001 की जनगणना से तुलना करे तो सूबे में महिला लिंगानुपात में कमी आई है। जहां साल 2001 में महिला लिंगानुपाल हजार में से 964 था, वहीं साल 2001 में 963 है। यह साल 2011 की जनसंख्या के अनुसार 940 के राष्ट्रीय औसत से कम है।
अब बात करते हैं उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के द्वाराहट तहसील के पटास गांव की। जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, इस गांव की कुल जनसंख्या 121 है। यहां 27 परिवार है जिनमें 44 पुरुष और 77 महिलाएं शामिल हैं।
यहां की साक्षरता दर 77.66 प्रतिशत है। इनमें पुरुष साक्षरता दर 94 और महिला साक्षरता दर 68 प्रतिशत है। वास्तविकता के धरातल पर इस गांव की सूरत बेहद चौंकाने वाली है। पटास की 70-80 फीसदी आबादी पूर्णत: पलायन हो चुकी है। तल्ला और मल्ला पटास में विभक्त पहाड़ी के इधर-उधर बसे गांव की स्थिति बेहद देयनीय है। तल्ला पटास में 14-15 घरों में से ज़्यादातर पर ताले झड़े हुए हैं। गांव में पुरुषों की संख्या दो से ज़्यादा नहीं है। किसी भी अप्रिय घटना की स्थिति में सारे गांव की जिम्मेदारी इन्हीं के कंधों पर है।
पोस्टकार्ड यहां की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है। लड़का शहर से मनीऑडर के जरिए घर के लिए पैसा भेजता है। कृषि की स्थिति खस्ता है। ज़्यादातर खेत बंजर हो गए हैं, क्योंकि उनमें कमाने खाने वाला कोई नहीं है।
यह तो बस एक गांव की कहानी है। ऐसे ही कितने गांव यहां पूर्णत: पलायन की भेंट चढ़ गए हैं। संसाधनविहीन होने के पश्चात भी पटास की साक्षरता दर 77 है। यह इसके निकटतम गांव निरकोट और दौला से ज़्यादा है। पटास में अगर एक माचिस की जरूरत भी आन पड़ी तो आपको चार-पांच किलोमीटर की चढ़ाई पार करके लेनी होगी। दौला में 15 परिवारों की कुल जनसंख्या 92 है। इनमें महिलाओं की संख्या 57 और पुरुषों की संख्या 35 है। साक्षरता दर 42.62 प्रतिशत है। वहीं, निरकोट की कुल 60 परिवार निवास करते हैं। यहां की कुल आबादी 264 के करीब है। साक्षरतादर 72.17 प्रतिशत है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि पहाड़ को किस तरह के नेतृत्व की आवश्यता है? बीजेपी और कांग्रेस की लूट-खसोट से जनता पहले ही वाकिफ हो चुकी है। मुख्यमंत्री हरीश रावत का बड़े बांधों को खुला समर्थन और उमा भारती का यह बयान कि वह बड़े बांधों के विरोध में नहीं है, दोनों राजनीतिक दलों की दूरदृष्टि और जनता को अपने हक से बेदखल करने की साजिश साफ समझ आती है। पहाड़ी की जवानी और पानी दोनों उसके काम नहीं आता, यह बात सिर्फ एक हास्यास्पद जुमले के तौर पर कही जाने लगी है। इसके पीछे का मर्म पहाड़ की जटिलताओं से गुजरा व्यक्त ही समझता है।
ललित फुलारा
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