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साहित्य में नहीं होती कोई शर्त, सब सुखों से बढ़कर है लेखन­­­­­

‘लेखक से मिलिये’ में इस बार लेखिका सिनीवाली. उनका कहानी संग्रह ‘गुलाबी नदी की मछलियां’ खासा चर्चित रहा है. सिनीवाली से बातचीत के संपादित अंशों को पढ़िये. सिनीवाली कहती हैं, ‘लेखक का पहला दायित्व होता है कि वो कमजोर, पीड़ित और शोषित के पक्ष में खड़ा हो क्योंकि जहां कोई खड़ा नहीं होता है, वहां साहित्य खड़ा होता है. साहित्य के साथ शर्त नहीं होनी चाहिए. जिसका कोई सहारा नहीं है, वो साहित्य की ओर देखता है.’ लेखकों को मिलने वाली रॉयल्टी को लेकर सवाल पूछे जाने पर सिनीवाली जवाब देती हैं कि यह शिकायत स्वाभाविक सी बात है क्योंकि वैसी पारदर्शिता अभी प्रकाशक एवं लेखक के बीच नहीं आई है कि रॉयल्टी पर बात भी करें. सब सुखों से बढ़कर है लेखन सिनीवाली कहती हैं कि लेखन का काम सब सुखों से बढ़कर होता है. उस सुख के लिए ही लेखक लिखता है. जब लेखक लिखना शुरू करता है, तो उसको पता नहीं होता है कि उसको प्रसिद्धि मिलेगी कि नहीं. कुछ तय नहीं है, लेकिन उसकी जो एक भूख है, आत्मा की भूख, उस भूख के लिए वो लिखेगा, उस दर्द के लिए लिखेगा. उनसे पूछा गया था कि लेखक को जब रॉयल्टी सही से नहीं मिलती है, तो वो फिर क्यों लिखता है?
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कॉफी टेबल पर नहीं रची गई है अर्बन नक्सल थ्योरी: कमलेश कमल

कमलेश कमल की पैदाइश बिहार के पूर्णिया जिले की है. उनका उपन्यास ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ चर्चित रहा है और कई भाषाओं में अनुवादित भी हुआ है. यह नॉवेल यश पब्लिकेशंस से प्रकाशित हुआ है. हाल ही में उनकी भाषा विज्ञान पर नवीन पुस्तक ‘भाषा संशय- सोधन’ भी आई है. इस सीरीज में उनसे उनकी किताबों और रचना प्रक्रिया के बारे में बातचीत की गई है. मेरी संवेदनाओं और मनोजगत का हिस्सा है बस्तर कमलेश कमल का उपन्यास ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ (Operation Bastar Prem Aur Jung) का कथानक नक्सलवाद पर आधारित है. उनका कहना है कि बस्तर कहीं न कहीं मेरी संवेदनाओं, भाव और मनोजगत का हिस्सा है. मैं ढ़ाई साल बस्तर के कोंडागांव (KONDAGAON BASTAR) में तैनात रहा. पूरा इलाका नक्सल प्रभावित है. नक्सलवाद को न सिर्फ मैंने समझा बल्कि बस्तर की वेदना, पूरी आबोहवा को जाना एवं अनुभूत किया है. एक लेखक को अनुभूत विषय पर ही लिखना चाहिए. लेखक का लेखन किसी ऐसे विषय पर इसलिए नहीं होना चाहिए कि वो सब्जेक्ट चर्चित है. बल्कि वह विषय उसके अनुभव और भाव जगत का हिस्सा भी होना चाहिए. नक्सल केंद्रित जितने भी उपन्यास हैं, उनमें या तो सुरक्षाब

दिल्ली में मन नहीं लगा तो दीवार पर लिखा- मैं अब लौटकर नहीं आऊंगा, फिर उसे कर दिया एक गधे की वापसी- वरिष्ठ साहित्यकार हरिसुमन बिष्ट

प्रख्यात साहित्यकार डॉक्टर हरिसुमन बिष्ट कहते हैं ‘रॉयल्टी को लेकर लेखकों के साथ हेर-फेर करना दु:खद स्थिति है. सरकारों को इसके लिए पहल करनी चाहिए. आख़िर लेखक ही ऐसा क्यों है जो बिल्कुल उपेक्षा का शिकार है. अख़बारों से भी साहित्य गायब हो गया है. वाद-विवाद के केंद्र जहां चर्चाएं होती थी, वो भी कम हो गये हैं. इधर, लेखकों में एक तरह से निराशा का भाव जगा है. यदि सरकारों ने कॉपी राइट के नियम पर कुछ सोचा होता तो निश्चित तौर पर एक नीति बनती और उसके तहत लेखकों को कुछ मिलता.’ अच्छा रचनाकार बनना है तो अति-संवेदनशील होना पड़ेगा वह कहते हैं ‘आज की तारीख़ में अगर आप एक अच्छे रचनाकार होना चाहते हैं, तो आपको अति-संवेदनशील होना पड़ेगा. चीज़ें और परिस्थितियां दिनों-दिन बदल रही हैं.’  असहिष्णुता के नाम पर पुस्कार लौटाने को कैसे देखते हैं?  पूछने पर 65 साल के वरिष्ठ साहित्यकार हरिसुमन बिष्ट कहते हैं कि मैं इसमें स्पष्ट कहता हूं कोई भी संस्था और व्यक्ति अगर आपको सम्मानित करता है, तो सम्मान का आदर होना चाहिए. आपको तिरस्कार के लिए सम्मानित नहीं किया गया है. वह कहते हैं कि राजनीति के बिना साहित्य तो चल नहीं स

कैंपस, युवा, प्रेम और पॉलिटिक्स के ईर्द-गिर्द बुना गया एक शानदार उपन्यास है 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी'

उपन्यास- 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' लेखक- ललित फुलारा प्रकाशक- यश पब्लिकेशंस मूल्य- 199 रुपये पृष्ठ संख्या- 127 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' एक ऐसा उपन्यास है, जिसे हाथ में उठाने के बाद आप बिना खत्म किये छोड़ नहीं सकते. लेखक ने यूथ और कैंपस बेस्ड इस नॉवेल को सदी हुई भाषा में कसा है और तारतम्यता को इस तरह से बरकरार रखा है कि मानों उपन्यास न हो कर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कोई वेब सीरीज चल रही हो...! इस नॉवेल की शुरुआत 'दिल की बात' से होती है, जो वाकई में आपके दिल में उतर जाती है. धीरे-धीरे हास्य और गुदगुदाने वाले अंदाज में घासी उभरकर सामने आता है और उसके किस्से ठहाके लगाने पर मजबूर कर देते हैं. यथावत पत्रिका में छपी पुस्तक समीक्षा पुस्तक के जिस भी पन्ने में घासी आता है आप बिना मुस्कुराये नहीं रह सकते. टिल्लू की प्रेम कहानी में कई बार दिल धुकधुकाता था तो कई बार लगता था कि टिल्लू के साथ गलत हुआ. नव्या के प्रति सहानुभूति भी होती थी और यह सस्पेंस भी बरकरार रहता था कि आगे क्या हुआ होगा? उपन्यास में मौजूद प्रेम कहानी कभी भावुक करती थी तो कभी अचानक से गुस्सा दिला देती थी.

किसी को तो पड़ी हुई लकड़ी लेनी पड़ेगी साहब! पुलिस सेवा के लिए है या अपशब्दों के लिए?

पुलिस वैन में सर्वेश कुमार मैं बचपन से ही पुलिस वालों से चार क़दम दूर भागता हूं. कारण उनका रवैया रहा है. बहुत कम पुलिसकर्मी होंगे जो आपसे सलीक़े से बात करेंगे. नहीं तो रौब दिखाना उनकी प्रवृत्ति में शामिल होता है. शायद ये एक तरीक़ा हो अपराधी को तोड़ने और अपराध का पता लगाने के लिए. लेकिन, जब ये ही रवैया पुलिस आम नागरिकों पर अपनाने लगती है, तो उसकी छवि धूमिल हो उठती है. उसके प्रति आम नागरिक के मन में डर पैदा हो जाता है. आम नागरिक पुलिस से कतराने लगते हैं जिसका ख़ामियाजा समाज को उठाना पड़ता है, क्योंकि बहुत-सी घटनाओं में नागरिक ‘पुलिस के चक्कर में कौन पड़े कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं.’ मैंने ऊपर जो लिखा है इसका मतलब ये कतई नहीं है कि सारे पुलिसकर्मी एक से होते हैं…लेकिन कुछ पुलिसकर्मियों की बदौलत उनको यह तमगा पहनना पड़ता है. \जब पुलिसकर्मी ने कहा- तुम क्यों पड़ी हुई लकड़ी ले रहे हो? आज यानी की शुक्रवार सुबह जब सर्वेश कुमार नाम के एक पुलिसकर्मी ने मुझसे कहा कि तुम क्यों पड़ी हुई लकड़ी ले रहे हो. तब से मेरा मन बेहद व्यथित है. मैं एक ही बात सोच रहा हूं कि जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले मी

बचपन के दोस्तों से बातें करना मतलब- स्मृतियों के रूप में बीते पलों का वापस लौटना

कभी-कभार बचपन में लौट जाना कितना सुकून देता है। पुरानी स्मृतियों को छूकर वापस लौटना भीतर की रिक्तता को भर देता है। उदासी छूमंतर हो जाती है, और चेहरे पर ख़ुशी लौट आती है। बचपन के दोस्तों की दास्तां और गुज़रे ज़माने के वो पल सबसे अनोखे होते हैं, जो कहीं गहरी तहों में दबे रहते हैं और जब उकेरे आंखों के आगे घूमने लग जाते हैं। आप वापस वहां पहुंच जाते हैं, जहां बस ख्वाबों और पुरानी स्मृतियों के ज़रिए ही पहुंचा जाता है। इसलिए ही कहते हैं, बीता पल वापस नहीं लौटता...बीतें पलों के रूप में वापस लौटती हैं यादें और स्मृतियां.. जो शरीर के ख़ाक होने के साथ ही विस्मृत होती हैं। अभी अचानक स्कूल के दोस्तों की यादें ज़ेहन में उभर आई। एक-एक कर सबसे चेहरे आंखों के आगे घूमने लगे। फटाफट फोन निकाला और मिला डाला। दूसरी तरफ, देवव्रत था। फिर दीपक भट्ट जुड़ा और थोड़ी देर के लिए उमेश चौहान भी आया पर उसकी व्यस्तता और वातावरण के शोर, कोलाहल और मशीनी हो हल्ले ने कॉन्फ्रेंस कॉल से दूर कर दिया। क़रीब एक घंटे तक बातचीत का सिलसिला चलते रहा। जब बचपन के दोस्तों के साथ बातें होती हैं, तो बस होती ही चली जाती हैं। संवाद  अगर ल

मिलिए, उत्तराखंड के उस शख्स से जिनका पीएम मोदी ने 'मन की बात' में लिया नाम

(जगदीश कुन्याल) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को 'मन की बात' कार्यक्रम में उत्तराखंड के बागेश्वर निवासी जगदीश कुन्याल के पर्यावरण संरक्षण और जल संकट से निजात दिलाने वाले कार्यों की सराहना की। पीएम मोदी ने कहा कि उनका यह कार्य बहुत कुछ सीखाता है। उनका गांव और आसपास का क्षेत्र पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए एक प्राकृतिक जल स्त्रोत पर निर्भर था। जो काफी साल पहले सूख गया था। जिसकी वजह से पूरे इलाके में पानी का संकट गहरा गया। जगदीश ने इस संकट का हल वृक्षारोपण के जरिए करने की ठानी। उन्होंने गांव के लोगों के साथ मिलकर हजारों की संख्या में पेड़ लगाए और सूख चुका गधेरा फिर से पानी से भर गया। कौन हैं जगदीश कुन्याल दरअसल, जगदीश कुन्याल पर्यावरण प्रेमी हैं और उन्होंने अपनी निजी प्रयास से इलाके में हजारों की संख्या में वृक्षारोपण किया जिसकी वजह से सूख चुके पानी के गधेरे में जल धारा फिर से प्रवाहित हुई। वह गरुड़ विकासखंड के सिरकोट गांव के रहने वाले हैं। पूर्ण ज्येष्ठ प्रमुख भी रहे हैं। उन्होंने अपने इस भगीरथ प्रयास की बदौलत न सिर्फ गांव वालों के लिए मिशाल पेश की है, बल्कि सूबे के सभी